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चौदहवीं के चाँद सी, सागर के उफ़ान सी

चौदहवीं के चाँद सी, सागर के उफ़ान सी, ओस पर थिरकती थी, गुलाब सी महकती थी, एक परी घर में रहती थी। जाने किसने बहका दिया, क्या क्या किसीने कह दिया उसे लोहे का और मुझे मिट्टी का कर दिया ॥ दिल में बिठा कर बरसों, अरमानो से सहलाया था, चाँद तारों से आँचल को सजाया था, एक परी को साथ लाया था । जाने कौन उसे बहला गया, धूप में दौड़ा कर उसे लोहे का और मुझे मिट्टी का कर दिया ॥ उम्मीद है की वो नाहक दौड़ना छोड़, खुद को समझ पायेगी लोहे के कवच से निकल, मिट्टी में भी खिलखिलाएगी, वो सांझ जल्दी ही आएगी ॥ वो सांझ जल्दी ही आएगी॥

आज चाय में फिर चीनी नहीं है

आज चाय में फिर चीनी नहीं है , उफ़, ये दिन फिर से वहीं है। उड़ कर आ जाता है रोज़ ये दिन, रात भर सोता नहीं तारे गिन गिन। आज चाय में फिर चीनी नहीं है , अहा, थिरकती हुई उम्मीद, थमी नहीं है। बारिशों में भीगी, भाग कर आई गोदी में मेरी सिमट, ऐसे ही सोयी। आज चाय में फिर चीनी नहीं है , हश्श, मेले में रोशनी कहीं कहीं है। छन छन के आती रही चाँदनी , शहर आज गर्म नहीं है। आज चाय में चीनी सही है , उंह, ये मीठी फिर भी नहीं है। उठ रही है भाप बहुत देर से, चाय अब ठंडी नहीं है।